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Anupasthit Upasthit | Rajesh Joshi
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Anupasthit Upasthit | Rajesh Joshi

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अनुपस्थित-उपस्थित | राजेश जोशी मैं अक्सर अपनी चाबियाँ खो देता हूँछाता मैं कहीं छोड़ आता हूँऔर तर-ब-तर होकर घर लौटता हूँअपना चश्मा तो मैं कई बार खो चुका हूँपता नहीं किसके हाथ लगी होंगी वे चीजेंकिसी न किसी को कभी न कभी तो मिलती ही होंगीवे तमाम चीज़ें जिन्हें हम कहीं न कहीं भूल आएछूटी हुई हर एक चीज़ तो किसी के काम नहीं आती कभी भीलेकिन कोई न कोई चीज़ तो किसी न किसी केकभी न कभी काम आती ही होगीजो उसका उपयोग करता होगाजिसके हाथ लगी होंगी मेरी छूटी हुई चीजेंवह मुझे नहीं जानता होगाहर बार मेरा छाता लगाते हुएवह उस आदमी के बारे में सोचते हुएमन-ही-मन शुक्रिया अदा करता होगा जिसे वह नहीं जानताइस तरह एक अनाम अपरिचित की तरह उसकी स्मृति मेंकहीं न कहीं मैं रह रहा हूँ जाने कितने दिनों सेजो मुझे नहीं जानताजिसे मैं नहीं जानतापता नहीं मैं कहाँ -कहाँ रह रहा हूँ मैं एक अनुपस्थित-उपस्थित !एक दिन रास्ते में मुझे एक सिक्का पड़ा मिलामैंने उसे उठाया और आस-पास देखकर चुपचाप जेब में रख लियामन नहीं माना, लगा अगर किसी ज़रूरतमन्द का रहा होगातो मन-ही-मन वह कुढ़ता होगाकुछ देर जेब में पड़े सिक्के को उँगलियों के बीच घुमाता रहाफिर जेब से निकालकर एक भिखारी के कासे में डाल दियाभिखारी ने मुझे दुआएँ दींउससे तो नहीं कह सका मैंकि सिक्का मेरा नहीं हैलेकिन मन-ही-मन मैंने कहाकि ओ भिखारी की दुआओजाओं उस शख्स के पास चली जाओ

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