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Andhere Ki Bhi Hoti Hai Ek Vyavastha | Anupam Singh
Andhere Ki Bhi Hoti Hai Ek Vyavastha | Anupam Singh

Andhere Ki Bhi Hoti Hai Ek Vyavastha | Anupam Singh

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अँधेरे की भी होती है एक व्यवस्था | अनुपम सिंह अँधेरे की भी होती है एक व्यवस्थाचीज़ें गतिमान रहती हैं अपनी जगहों परबादल गरजते हैं कहीं टूट पड़ती हैं बिजलियाँबारिश अँधेरे में भी भिगो देती है पेड़पत्तियों से टपकता पानी सुनाई देता हैअँधेरे के आईने में देखती हूँ अपना चेहरातुम आते तो दिखाई देते होबस! ख़त्म नहीं होतीं दूरियाँआँसू ढुलक जाते हैं गालों परअँधेरे में भी दुख की होती है एक चमकदूर दी जा रही है बलिअँधेरे में भी सुना जा सकता है फ़र्श पर गिरा चाकूकोई होता तो रख देता हाथमेरी काँपती-थरथराती देह परअँधेरे में भी उठ रही है चिताओं से गंधराख उड़कर पड़ रही है फूलों परहाथ से छुई जा सकती है ताज़ा खुदी कब्रों की मिटटी वहाँ अभी भी जाग रही हैं मुर्दे की इच्छाएँखेल रहे हैं दो बालक उसकेअँधेरे में भी सुनी जा सकती है उनके हृदय की धकधकबिल्ली अँधेरे में भी खेलती है अपने बच्चों संगऔर कवि गढ़ लेता उजाले का बिम्बअँधेरे में भी लादे-फाँदे रेलगाड़ियाँपहुँच जाती हैं कहाँ से कहाँएक अँधेरे से दूसरे अँधेरे में पैदल ही पहुँच जाते हैं।बच्चे बूढ़े औरतें और अपाहिज सुनाई देती है उनकी कातर पुकारअँधेरे में भी उपस्थित रहता है ब्रम्हांडअँधेरे-उजाले से परे घूमती रहती है पृथ्वीअँधेरे के आर-पार घूमते हैं नक्षत्र सारेअँधेरे की भी होती है व्यवस्थाअँधेरे में अंकुरित होते हैं बीजसादे काग़ज अँधेरे में भी करते हैं इंतज़ार किसी क़लम कालिखे जाने को समय की कविता।

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