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Mere Bheetar Ki Koel | Sarveshwar Dayal Saxena
Mere Bheetar Ki Koel | Sarveshwar Dayal Saxena

Mere Bheetar Ki Koel | Sarveshwar Dayal Saxena

00:02:23
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मेरे भीतर की कोयल | सर्वेश्वरदयाल सक्सेनामेरे भीतर कहींएक कोयल पागल हो गई है।सुबह, दुपहर, शाम, रातबस कूदती ही रहती हैहर क्षणकिन्हीं पत्तियों में छिपीथकती नहीं।मैं क्या करूँ?उसकी यह कुहू-कुहूसुनते-सुनते मैं घबरा गया हूँ।कहाँ से लाऊँएक घनी फलों से लदी अमराई?कुछ बूढ़े पेड़पत्तियाँ सँभाले खड़े हैंयही क्या कम है!मैं जानता हूँवह अकेली हैऔर भूखीअपनी ही कूक कीप्रतिध्वनि के सहारेवह जिये जा रही हैएक आस में—अभी कोई आएगाउसके साथ मिलकर गाएगाउसकी चोंच से चोंच रगड़ेगापंख सहलाएगायह बूढ़े पेड़ फलों से लद जाएँगे।कुहू-कुहूउसकी आवाज़—वह नहीं जानतीमैं जानता हूँअब दिन-पर-दिन कमज़ोर होती जा रही है।कुछ दिनों बादइतनी शिथिल हो जाएगीकि प्रतिध्वनियाँ बनाने कीउसकी सामर्थ्य चुक जाएगी।वह नहीं रहेगी।मेरे भीतर की यह पागल कोयलतब मुझे पागल कर जाएगी।मैं बूढ़े पेड़ों की छाँह नापता रहूँगाऔर पत्तियाँ गिनता रहूँगाख़ामोश।

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