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Silbatta | Prashant Bebaar
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सिलबट्टा | प्रशांत बेबार वो पीसती है दिन रात लगातारमसाले सिलबट्टे परतेज़ तीखे मसालेअक्सर जलने वालेपीसकर दाँतीतानकर भौहेंवो पीसती है हरी-हरी नरम पत्तियाँऔर गहरे काले लम्हेसिलेटी से चुभने वाले किस्सेवो पीसती हैं मीठे काजू, भीगे बादामऔर पीस देना चाहती हैसभी कड़वी भददी बेस्वाद बातेंलगाकर आलती-पालतीलिटाकर सिल, उठाकर सिरहाना उसकादोनों हथेलियों में फँसाकर बट्टासीने में सास भरकरनथुने फुलाकरपसीने से लथपथपीस देना चाहती हैबार-बार सरकता घूँघटचिल्लाहट, छटपटाहट अपनी और उनकी, जिनके निशान हैं बट्टे परऔर उनकी भी,जिनके निशान नहीं चाहती बट्टे परवो पीसती है दिन रातखुद को लगातारमिलाकर देह का चूरापोटुओं से नमक में यूँबनाती है लज़ीज़ सब कुछवो पीसते-पीसते सिलबट्टे पे उम्र अपनीगढ़ती है तमाम मीठे ठंडे सपनेऔर रख देती हैबेटी के नन्हे होठों के पोरों पर चुपचापसिलबट्टे से दूर, सिलबट्टे से बहुत दूर।

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