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Balshram | Pawan Sain Masoom
Balshram | Pawan Sain Masoom

Balshram | Pawan Sain Masoom

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बालश्रम| पवन सैन मासूम छणकु साफ़ कर रहा है चाय के झूठे गिलासइसलिए नहीं कि उसके नन्हें हाथसरलता से पहुँच पा रहे हैं गिलास की तह तकबल्कि इसलिए किउसके घर में भी हों झूठे बर्तनजो चमचमा रहे हैं एक अरसे सेअन्न के अभाव में।दुकिया पहुँचा रहा है चायठेले से दुकानों, चौकों तकइसलिए नहीं कि वह नन्हें पाँवों से तेज़ दौड़ता हैबल्कि इसलिए किउसके शराबी पिता के दौड़ते पाँवों की गतिहो सके कुछ धीमीजो दौड़ते हैं अपनी पत्नी की तरफ़उससे पैसे न मिलने पर पीटने की ख़ातिर।बुझकू धूप अँधेरे कमरे मेंबना रहा है रंग-बिरंगी चूड़ियांइसलिए नहीं कि उसकी छोटी आँखों की तेज़ है रोशनीबल्कि इसलिए किवह माँ-बाप के साये के बिना भीपढ़ा सके मुनिया कोजिससे छँट सके कुटिया का अँधेराऔर उनके काले जीवन मेंघुल सके कुछ खुशियों के रंग।शामली सेठ के यहाँ बना रही है रसोईऔर चमका रही है हवेली,इसलिए नहीं कि वह नौ वर्ष की आयु में हीहो चुकी है घरेलू कार्यों में निपुणबल्कि इसलिए किहवेली में काम करकेवह बचा सके माँ को कोठे के साये सेख़ुद के सपनों को चोटिल करते हुएबचा सके माँ के शरीर को नुचने से।छणकु, दुकिया, बुझकू और शामली ही के जैसेन जाने और कितने बच्चे खप रहे हैंघरों, खेतों, दुकानों और कारखानों में,जो बचा रहे हैं अपने सपनों की कीमत परअपनी छोटी सी दुनिया को।कितने गर्व की बात है येआओ मिलकर बजाते हैं तालियाँइन सबके सम्मान में।हम नपुंसक बन चुके लोगइसके अतिरिक्त कर भी क्या सकते है?

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